महाराष्ट्र में प्राथमिक शिक्षा में हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा का दर्जा देने का विरोध तो चिंताजनक है ही, लेकिन इस पर मनसे और शिवसेना (उद्धव गुट) के तीखे तेवर के मद्देनजर फडणवीस सरकार का रक्षात्मक रुख बताता है कि महाराष्ट्र में हिंदी विरोध की तुलना तमिलनाडु से नहीं की जा सकती. हालांकि तमिलनाडु की तरह महाराष्ट्र में भी हिंदी विरोध का इतिहास रहा है, जब 1950 के दशक में तत्कालीन बॉम्बे स्टेट में हिंदी विरोधी आंदोलन चला था. वह आंदोलन गुजरात और दक्षिण भारत के खिलाफ भी था. शिवसेना की पूरी राजनीति ही इस पर टिकी थी. अब महाराष्ट्र की राजनीति में खुद को फिर से प्रासंगिक बनाने की कोशिश में लगे उद्धव ठाकरे को हिंदी को मुद्दा बनाकर फडणवीस सरकार पर निशाना साधने का सुनहरा मौका हाथ लगा है. हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने के फैसले को वह मराठी विरोधी बता रहे हैं. चूंकि मनसे ने भी इस मुद्दे पर सरकार पर हमला बोला है, और उद्धव तथा राज ठाकरे के एक साथ आने की बात चल रही है, इस कारण फडणवीस सरकार रक्षात्मक रवैया अपना रही है. भाजपा के लिए मुश्किल इसलिए भी है, क्योंकि महाराष्ट्र में स्थानीय निकायों के चुनाव नजदीक हैं. फडणवीस ने पहले कहा था कि मराठी पर हिंदी थोपी नहीं जा रही.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनइपी) में तीन भाषाओं को सीखने का अवसर मिला है और नियम कहता है कि इन तीन भाषाओं में से दो भाषाएं भारतीय होनी चाहिए. पर चौतरफा दबाव के बीच रविवार को उन्होंने कहा कि राज्य में मराठी अनिवार्य है, हिंदी नहीं, और अब हिंदी को वैकल्पिक भाषा के रूप में प्रयोग करने की अनुमति दी जायेगी. हालांकि उनका यह भी कहना है कि हिंदी भाषा के लिए शिक्षक उपलब्ध हैं, पर अन्य भाषाओं के लिए शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं. हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने का फैसला रद्द करने का मुख्यमंत्री से अनुरोध करते हुए महाराष्ट्र सरकार की भाषा परामर्श समिति की यह टिप्पणी तो बेहद अपमानजनक है कि हिंदी रोजगार, प्रतिष्ठा, आय या ज्ञान की भाषा नहीं है. यह हैरान करने वाली बात है कि जो मुंबई हिंदी सिनेमा का प्राणकेंद्र है, वहीं से हिंदी भाषा के बारे में ऐसी अनर्गल बातें कही जा रही हैं. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की जो भी मजबूरी हो, पर लोगों की सोच पर सवाल उठाते हुए उन्होंने बिल्कुल ठीक कहा है कि हम हिंदी जैसी भारतीय भाषाओं का तो विरोध करते हैं, पर अंग्रेजी की तारीफों के पुल बांधते हैं.